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Thursday 16 November 2017

जब डाकू रोया था

दक्षिण अमेरिका की बात है | उन दिनों वहां सोने की खान निकली थी | दूर - दूर के वयापारी और बहुत - से मजदूर वहां पहुंचे | यों ही उपज बहुत कम हुई थी, फिर बाहर के बहुत लोग पहुँच गए | अकाल - सा पड़ गया | खाने - पहन ने की चीज़ों के दाम बहुत बढ़ गए | लोग सड़ी - गली वस्तुओं से पेट भरने लगे | ज्वर तो पहले से फैला था, हैजा भी फैल गया |

पंडितों की सेवा करने वाली प्रसिद्ध संस्था 'मुक्ति - सेना' ने अपना दल वहां भेजा | उसकी संस्थापिका स्वंय वहां पहुंची | लोगों ने डाकुओं का बहुत भय बताया, परन्तु 'मुक्ति - सेना' तो सेवा करने आयी थी

उसका दल निर्भय आगे बढ़ता गया | पेड़ों के नीचे तम्बू पड़े थे और उनके चिकित्स्क रोगियों की सेवा में लगे थे | एक दिन एक सहस्त्र घुड़सवार आया | उसने उस सेवा - दल की संस्थापिका को एक पत्र दिया और एक बढ़िया कम्बल | उस समय वहां एक अच्छा कम्बल बहुत बड़ी बात थी | वह सवार पत्र का उत्तर लेकर लौट गया |

दूसरे दिन एक सुंदर युवक घोड़े पर आया | वह उस महिमायी नारी के आगे घुटनो के बल बैठ गया | उसने कहा - आपने मेरा कम्बल स्वीकार कर के मुझ पर बड़ी किरपा की | जो सबकी सेवा में लगा है, उसने इस अधम को अपनी एक नन्ही सेवा का अवसर तो दिया |

महिला ने कहा - क्या तुम मेरे साथ परमेश्वर की प्रार्थना में सम्मिलित होना पसंद करेंगे ?
वह तुरंत तैयार हो गया | लोग जिसे पत्थर के हिरदये का पिशाच समझते थे, वह उस दिन प्रार्थना में बच्चो की भांति फुट - फूटकर रोया | वही उन डाकुओं का प्रधान अधक्षय था |

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